आओ सन्नाटों की भाषा समझें
ये चुप रह कर भी बहुत बोलते हैं
उधेड़ते हैं बहुत कुछ दबी परतें खोलते हैं
मेरे घर में मुझ जैसा जो सदिओं से रहता है
में जिसे आज तक जान नहीं पाया पहचान नहीं पाया
ये उसे खूब जानते हैं बराबर पहचानते हैं
मुझे बार बार उससे परिचित करवाते हैं
उसका हर मर्म खोलते हैं मेरा अंतस झिन्जोड़ते हैं
वाकई सन्नाटे बहुत बोलते हैं
Sahi guru ....sannata sabki pol khol deta hain
ReplyDeletenice introspective poetry !
ReplyDeleteappreciable
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