Friday, September 10, 2010

स्वर्ण मृग

मित्र में परेशान तुम्हे कहते कहते थक गया 
    पर् तुम नहीं माने ओर गयी रात तक कुंवारी महक तलाशते रहे
तुम नें फूल की हर पंखुड़ी को छूना चाहा  पाना चाहा 
पर छू ना सके पा ना सके 
                     इतने पर भी तुम नहीं माने 
ओर दूर जंगलों में तलाश करने चले गए 
आवाजों के जंगल में
          जहां गयी रात तक कच्ची ताड़ी के नशे में 
नंगे जिस्म नंगे पाँव नाचते रहे
कुछ पल को तुम नें सोचा की तुम्हारी खोज पूरी हुई
तभी तुम को कुछ भास् हुआ 
मैले तकिये पर् लगे चिपचिपे  जबाकुसुम के तेल का एहसास हुआ
 जब तुम नें ये जाना  की
तमाम दिन  टाआयप्रिटर पर् टाइप करते हुए
उसकी उन्ग्लिआं दम तोड़ चुकी थी 
फ्रीज्ड  बीअर के ग्लास ओर सिगरेट के धुंए  नें उसको निचोड़ लिया था
ओर तुम किसी पुरानी लोक कथा के नायक से स्वर्ण मृग के पीछे भागते रहे
पर आज तक पा न सके     

2 comments:

  1. ये कविता १९७१ की है ओर पूर्व्प्रकस्षित है

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  2. Wah....aisa heera kahaan chupa hua tha itnee der..aisee kavita pad kar "kavita" mae hee zindagee bitaanae ko dil karta hae...
    Poetry is life !!! Keep writing !!! I am proud of you...

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