गंध सुवासित केश रूपसी गीले पुलकित गात थे
हम तुम दोनों साथ थे
मौसम नें आवाज लगाई हर देहरी हर द्वार से
नेह लदी लहरें लहरआयी आँचल के हर तार से
निशिगंधा के फूल खिले थे कुछ कहने को अधर हिले थे
असीमता बाहों में आकर सिमटी कुछ मनुहार से
नदिया तीरे बंसी के स्वर गूंजे सारी रात थे
हम तुम दोनों साथ थे
नीर जामुनी वसन पिया के आन घिरे आकाश पर्
अरुण कपोलों से कनेर के फूल झरे आकाश में
संसृति नें सुध बुध के बंधन तोड़ रचाए थे आलिंगन
भ्रमित धरा बेसुध हो सोयी अम्बर के भुज पाश में
होंटों पर् मुस्कान अमिट थी और नयन जलजात थे
हम तुम दोनों साथ थे
अस्थिर मन से डोल रहे थे कमल गुलाबी ताल पर्
चन्दा की किरणे बिखरी थी नवल नीम की डाल पर्
अन्धिआरों कि चाह घनी थी कुछ पल को तुम मौन बनी थी
अनजाने अंकित कर डाले गीले चुम्बन गाल पर्
तारे नभ में आँख मिचौली खेले सारी रात थे
हम तुम दोनों साथ थे
बस बाट रोक ली है आपकी इस सुन्दर रचना ने...
ReplyDeleteक्या कहूँ जो सटीक हो ....समझ नहीं पा रही....
आपकी यह रचना सिखा रही है कि श्रृंगार में रस और सौम्यता का सामजस्य कैसे रखा जाता है....
एक शब्द में कहूँ तो मुग्धकारी, लाजवाब रचना...
आपका बहुत आभार इस रचना को हम नें राग भोपाली में निब्बध किया था ओर ७० के दशक में बहुत मंचों पर् सस्वर पाठ क्या
ReplyDeleteपुनः धन्यावद
वाह...क्या बात है...बहुत बेहतरीन..सुपर-डुपर हिट हैं.
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