पुरवईया के प्रथम श्वास के स्वप्नों का उन्माद शेष है
पनघट से मरघट तक तुमको मैंने थी आवाज़ लगाई
लेकिन मेरे गीतों की ध्वनि शायद तुम तक पहुँच ना पायी
तेरे आँचल की छाया में जितने गीले गीत रचे थे
उन गीतों के शब्दों के अब मुट्ठी भर अनुवाद शेष हैं
होंटों पर मुस्कान बिखेरे अंतस में वेदना पली है
बीच शहर बिकने को ही तो मेरे मन की कली खिली है
आज सत्य नीलाम हो रहा बस कोरे अपवाद शेष हैं
लरज़ रहे हांथों से सहसा अनजाना घूंघट सरकाया
थोड़ा सा मन में साहस था थोडा मौसम नें भरमाया
में अपराधी जनम जनम का मुझे लकीरें मत दिखलाओ
दूध धुली रजनी में कितने करने को अपराध शेष हैं
यह गीत १९६७ में जालंधर रेडियो की कवी गोष्ठी में पढ़ा था
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