Wednesday, September 29, 2010

हम तुम दोनों साथ थे

गंध सुवासित केश रूपसी गीले पुलकित गात थे 
                     हम तुम दोनों साथ थे 
मौसम नें आवाज  लगाई हर देहरी हर द्वार से 
नेह लदी लहरें लहरआयी आँचल के हर तार से 
निशिगंधा के फूल खिले थे कुछ कहने को अधर हिले थे
असीमता बाहों में आकर सिमटी कुछ मनुहार से 
     नदिया तीरे बंसी के स्वर गूंजे सारी रात थे 
                          हम तुम दोनों साथ थे 
नीर जामुनी वसन पिया के आन घिरे आकाश पर् 
अरुण कपोलों से कनेर के फूल झरे आकाश में
संसृति नें सुध बुध के बंधन तोड़ रचाए थे आलिंगन 
भ्रमित धरा बेसुध हो सोयी अम्बर के भुज पाश में 
    होंटों पर् मुस्कान अमिट थी और नयन जलजात थे 
                          हम तुम दोनों साथ थे
 अस्थिर मन से डोल रहे थे कमल गुलाबी ताल पर् 
चन्दा की किरणे बिखरी थी नवल नीम की डाल पर् 
अन्धिआरों कि चाह घनी थी कुछ पल को तुम मौन बनी थी 
अनजाने अंकित कर डाले गीले चुम्बन गाल पर् 
       तारे नभ में आँख मिचौली खेले सारी रात थे 
                            हम तुम दोनों साथ थे 

3 comments:

  1. बस बाट रोक ली है आपकी इस सुन्दर रचना ने...
    क्या कहूँ जो सटीक हो ....समझ नहीं पा रही....

    आपकी यह रचना सिखा रही है कि श्रृंगार में रस और सौम्यता का सामजस्य कैसे रखा जाता है....

    एक शब्द में कहूँ तो मुग्धकारी, लाजवाब रचना...

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  2. आपका बहुत आभार इस रचना को हम नें राग भोपाली में निब्बध किया था ओर ७० के दशक में बहुत मंचों पर् सस्वर पाठ क्या
    पुनः धन्यावद

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  3. वाह...क्या बात है...बहुत बेहतरीन..सुपर-डुपर हिट हैं.

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