Thursday, December 23, 2010

कहीं तुम देह में केसर

अजब है हाल  मौसम का फिरोज़ी  नम  घटाओं में
शराबी गंध इठला कर घुली गीली हवाओं में
कहीं तुम केश  में बेला सजाये तो नहीं बैठी
           सिमट कर कर तलों  में कंचनी सब देह  भर आयी
युगों की साध कर पूरी कंवारी आस गदराई
सुलगती जलन का आभास मिलता है चनारों में
महक जूह्ही के फूलों  की उड़ी जाती  बहारों में
कहीं तुम देह में केसर रमाये तो नहीं बैठी

अमावस के अंधेरों की कालिमा तज कर
बिखेरे  राष्मिआं आयी सुनहली लालिमा सज कर
पहन कर वसन वासन्ती अनेकों रूप इतराए
सृजन की तूलिका  में इन्द्रधनुषी रंग भर आये
कहीं तुम हाथ में मेहँदी रचाए तो नहीं बैठी
निरख कर रूप चांदी  सा लजाया  आज हर दर्पण
रगों  में बिज्लिओं सी कौंधती मृदु मिलन की सिहरन
निहारें जोगिया योवन पिया के पथ मुंडेरों से
झरे हैं लाल रंग के फूल राहों में कनेरों से
कहीं तुम मांग में सेंदुर  सजाये तो नहीं बैठी

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर लिखी है .......मुझे निम्न पंक्ति बहुत ही अच्छी लगी.......
    "सृजन की तूलिका में इन्द्रधनुषी रंग भर आये"

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